" जवाब "
कभी तुझसे कहे ये ज़मीं
की आ, ले समां मुझमें कहीं
कभी तुझसे कहे ये आसमां
की आ, ज़रा गले लग जा
कभी तुझसे कहे ये फिज़ा
की छू लूँ तुझे ज़रा एक दफा
की ऐसा क्या है तुझमें !
जो इसकी इजाज़त किसी को नहीं
की देख पाऊँ कितनी गहराई है तुझमें
की कितना प्यार है छुपा
क्यों है बाहर ये सख़्त सी दीवार
क्यूँ है इस नर्मी पर पहरे हज़ार
जो रोक देती है वो मासूम ख्वाहिशें हर बार
जो होती हैं हमेशा उड़ने को तैयार
तो इसमें बुरा ही क्या है अगर वो उड़ना चाहें तो
तो इसमें बुरा ही क्या है जो ये वक़्त बेवक़्त पहरे कभी ना हो तो!
सवाल बहुत से थे लेकिन जवाब एक भी ना मिला
ना होते इतने सवाल कभी,
पर शायद आज देखा करीब से तुझे
शायद आज जाना हक़ीक़त में तुझे
तो लगा जैसे इन सवालों का कभी कोई वजूद ही ना था
तब लगा शायद उन सवालों की कभी ज़रुरत ही ना थी
क्यूंकि जवाब खुद तू ही था
जवाब तेरी हर बात में था
जवाब तेरे हर लहज़े में था
जवाब तेरे हर ढंग में था
जवाब तेरे हर रंग में था
Comments
Post a Comment